…मैने ऐसा तो नहीं कहा था !

हर मंगलवार की तरह आज भी गणेशजी का दर्शन कर सतीश मंदिर से बाहर आया। सीढ़ियों बाजु में रखे बेंचपर सीतारामजी आराम से बैठे मंद मंद मुस्कुरा रहे थे।
स्लीपर से थोड़े पीछे खींचे पैर, पैंट घुटनों तक मोडी हुई, वैसे ही शर्ट की बाहें कोहनियों तक, माथे पर चन्दन का टिका और चेहरे की झुर्रियों में भी उठकर दिखनेवाली उनकी मुस्कराहट। सतीश भी सहज मुस्कुरा उठा और आकर सीतारामजी के पास बैठा ।

सीतारामजी मंदिर के ही कर्मचारी थे. रोज सवेरे सफाई कर पूरा मंदिर पानी से धोने बाद उसी बेंचपर आकर बैठते थे. उनकी बातें सुनना एक आत्मीय अनुभव की तरह था. उनसे जान-पहचान होने के बाद सतीश के मंगलवार के कार्यक्रम में एक चीज और गयी…गणेशदर्शन के बाद आधा-एक घंटा सीतारामजी से बातचीत। अभी दस-बारा हफ्ते ही हुए थे पर सीतारामजी की बातें सतीश किसी दार्शनिक की तरह लगती थी।

दोनों कभी आते-जाते लोगों और हनुमानजी की मूर्ति को देखते हुए शांत बैठे थे। पांच-दस मिनट बीते होंगे, फिर सीतारामजी बोल पड़े, “सतीश, ये जो लाला हरीप्रसादजी आ रहे है, इन्हें जानते हो? इस शहर के सबसे खुश रहनेवाले लोगों में से एक।” हरीप्रसाद मिलनेवाले हर व्यक्ति का अभिवादन करते हुए धीरे धीरे सीढ़िया चढ़ रहे थे।

“हाँ, खुश तो रहेंगे ही। शहर के सबसे धनवान लोगोंमेसे भी एक जो है.”

“हम्म। तो फिर वो जो अभी सबसे ऊपरवाली सीढ़ि पर हैं उनको भी जानते होंगे?”

“सेठ धनीराम?”

” हाँ वही. शहर के सबसे आमिर। सुना हैं लाला हरिप्रसाद से भी पांच गुणा संपत्ति हैं उनके पास।”

धनीराम मंदिर में प्रवेश कर घंटी बजाने रुके। वहा एक छोटा सा बच्चा उछल- उछल कर घंटी बजाने की कोशिश कर रहा था। धनीराम ने बच्चे की ओर देखा। बच्चा रुक गया। धनीराम ने घंटी बजाई, हाथ जोड़े और दर्शन के लिए अंदर चल दिए। बच्चा फिर से उछल कर घंटी बजाने की कोशिश करने लगा। इस बार वो हवा में उछला तो हवा में ही दो हाथो ने उसे कमर में थाम लिया और थोड़ा ऊँचा उठाया। बच्चे ने घंटी बजाई। घंटी की आवाज़ और उस बच्चे मुस्कराहट चारो और फ़ैलने लगी। उस मासूम देखकर हरकोई मुस्कुरा रहा था। सतीश और सीताराम भी। बच्चे को नीचे रख हरिप्रसाद खुद घंटी बजाए बिना ही अंदर चल पड़े।

सीतारामजी बोले,” एक काम करो सतीश, फिर से मंदिर के अंदर से हो आओ। ” सतीश के मन में भी वही था सो वो चल पड़ा। अंदर धनीरामजी दर्शन कर मूर्ति की प्रदक्षिणा कर रहे थे। हरिप्रसाद आराम से खड़े होकर गणेशजी की मूर्ति को निहार रहे थे। मानो उस मूर्ति की सुंदरता और फूलो सजावट उनकी आँखों से भीतर उतर रही हो। फिर आँखे बंद कर गहरी साँस ली। जैसे सारी इन्द्रियाँ, सारे द्वार खुले हैं और भीतर-बाहर की कोई सिमा न हो। इतने में फिर से घंटी की मधुर आवाज गुंजी। उनके चेहरे पर हमेशा रहनेवाला समाधान अधिक गहरा हो रहा था। सतीश को भी प्रसन्नता महसूस हुयी। वो धीरे से बहार आकर सीतारामजी के बगल में आकर बैठ गया। सीतारामजी मुस्कुरा रहे थे।

धनीराम और हरिप्रसाद बाहर निकल रहे थे। वही बच्चा अपनी माँ के साथ पेढ़ा बाँट रहा था। धनीराम ने पेढ़ा खाया, बच्चे का धन्यवाद किया और हरीप्रसादजी को अभिवादन कर जल्दी-जल्दी सीढ़िया उतरने लगे। हरिप्रसाद ने पेढ़ा हाथ पर लेते हुए बच्चे से पूछा, “भई, किस ख़ुशी में? हमें भी बताओ?”

” कुछ नहीं भैय्या। मुन्ना कल दौड़ में स्कुल में से फर्स्ट आया तो बोल रहा था के मंदिर में प्रशाद बांटना है। तो उसकी ख़ुशी के लिए…” माँ ने संकोचते हुए कहा।

“कुछ नहीं कैसे। कॉन्ग्रैट्स बेटा। खुश रहो। “, कहते हुए हरिप्रसाद ने पेढ़ा खाया। इत्मिनान से चबाते हुए, अन्न के कण-कण का आस्वाद लेते हुए वो सीढिया उतरने लगे। सतीश और सीताराम के पास से गुजरते वक्त उनका भी अभिवादन करते हुए हरिप्रसाद आगे बढ़ गए।

सीताराम कहने लगे, “खुश रहने का कोई फॉर्मूला नहीं। जिस पल, जिस काम में हो उसी को पूरी तरह जिओ। खुशियाँ तो बस बाईप्रॉडक्ट हैं। “

“सही कहा। खुश रहने के लिए पैसा जरुरी नहीं होता। “, सतीश

“पर मैंने ऐसा तो नहीं कहा।”, कहते हुए सीतारामजी ने स्लीपर पहनी, खड़े होकर मुस्कुराते हुए चल पड़े।

सतीश भी मुस्कुराकर और आराम से बैठा।

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कैमरा ज़ूम आउट हुआ और आवाज आई, “एंड… कट। “

हरिप्रसाद और धनीराम की एक्टिंग करनेवाले एक्टर्स चाय पी रहे थे। धनीराम के हाथ में सुलगती सिगारेट थी। बाजु में डायरेक्टर बैठे थे। सतीश और सीताराम की एक्टिंग करनेवाले एक्टर्स पहुंचे। धनीराम ने हाथ आगे किया तो सीताराम सिगरेट थामी, लम्बा लेकर धुँआ छोड़ते हुए बोला, “डायरेक्टर साहब, एक टेक में हो गया पूरा सिन। आपने कहा था की एक टेक मे हुआ तो डबल खुश करवाओगे। अब मेहनताना डबल दिलवाओ। “

डायरेक्टर ने कहा, “पर मैंने ऐसा तो नहीं कहा था ।”,

फिर चायवाले के तरफ मुड़कर डायरेक्टर बोले, “चलो सबको एक-एक और चाय पिलाओ, मलाईवाले दूध की। डबल खुश “

” चलो ये भी सही है। ” सब एकसाथ हस पड़े.

(रुपेश घागी, ८ जुलाई २०२०)

(एक शॉर्ट फिल्म के तौर पर लिखा था. आज पब्लिश कर रहा हू)