Half an hour after waking up in morning yesterday (i.e. 20th January) felt different. Multiple ideas, emotions and words were rising in my mind yet I was able to channelize it a bit and write most of them. Having many thoughts, some times uncontrollable is something which keeps on happening always. The difference is that until some 7-8 years back I was able to channelize the multiple thoughts and tasks, not just about writing but everything. Yesterday, I experienced my old self. I an writing all of it here today so that I can always come back to it. I am not claiming it to be poetry… read it as it is…
मैं मर भी जाऊ तो ज़िंदा रहेंगे, ज़िंदादिल भी,
मेरे सपने मेरे सोने के बाद भी जागते रहते हैं,
शिक्षक हूँ, सपनों के कई बीज बोए हैं, संजोए हैं
सपनों की लहलहाती फसलों के सपने देखे हैं ।
चेहरे पर सवाल लिए मिलता हैं इंसान से इंसान
ये कौनसा दौर है की ‘शक की‘ होती है पहली नज़र
कम शब्दों में कहने दो, फिर चुप रहने दो, अच्छा होगा
जरा emotions का रायता फैलाने की आदत हैं मुझे…
ललकती आँखो में चमकता शहर बसा तो लिया हमने,
खोयी सी नज़र क्यों गाँव ढूँढती हैं शहर के कोने कोने ?
फटे कपड़ों से शरीर छुपाने की मशक़्क़त में
पहले ‘सोच’, फिर ‘शब्दों’ का ‘संकोच’ हुआ,
अब नंगा हूँ तो न ख़ुदा का न बंदों का डर हैं,
धीरे धीरे लौट रही, मेरे कलम की ‘आवारगी’
संभलकर देखो तुम मेरी आँखों में जो छलक रहा हैं
ज़रूरी नहीं प्यार हों जाम हों या हों मिलन की आशा
लड़खड़ाते लब्ज़ से फिसलती खामोशी कुछ कह रहीं,
ज़रूरी नहीं अरज हों आरज़ू हों या हों तड़प बेतहाशा
चलें? साथ जलें? तेरा असर तो हुआ है, हैं तू भी ज़हर
ज़रूरी नहीं की मौत तक चलें या एक रातभर तेरा नशा
मैंने मोड़ दिया है समय का रुख़,
मेरी मौत से मेरा नया जन्म होगा